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वक्त से लाचार हंसी के अलम्बरदार

रैन बसेरा
रैन बसेरा
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‘व्यक्ति को अगर जीवन में सफल होना है तो आम जिन्दगी में एक कलाकार की तरह अभिनय करे औैर जब रंगमंच के स्टेज पर नुमाया हो तो आम जिन्दगी जीये।’ कुछ ऐसे ही दो रिफरंेसल फ्रेम में बखूबी जीवन जीने की कला को सच कर दिखाया है बहुरूपियों ने। कभी लैला-मजनू तो कभी संयासी, पागल, शैतान, भगवान शंकर, डाकू, नारद और मुनीम जैसे तमाम किरदारों को ये बखूबी निभाते हैं। कहा जाता है कि नायक और खलनायक का रोल कभी एक व्यक्ति द्वारा नहीं निभाया जा सकता है। दोनों रोल कभी-कभार फिल्मों में ही एक साथ देखा जाता है लेकिन ये बहुरूपिये इस मिथक को पूरी तरह झुठला देते हैं। ये विभिन्न किरदारों को इस कदर पेष करते हैं कि एक बारगी लोग उन्हे वास्तविक समझ बैठत हैं।
विभिन्न रूपों का स्वांग रचाकर ये बहुरूपिये दो जून की रोटी की खातिर लोगों की दिलजोई करते अक्सर नजर आते हैं। मगर कोई उनके दिल से तो पूछे कि दूसरों को प्रसन्न करने वाले इन लोगों की जिन्दगी कितनी तल्ख है। गली-मुहल्लों में नारदा-नारद की रट लगाते भगवान नारद हों या फिर लैला-लैला की पुकार करता मजनू इन्हे देख कर आम लोग तो बड़ी आसानी से मुस्कुरा देते हैं मगर जिन्दगी के रंगमंच पर खुद को पागल साबित करते ये बहुरूपिये सिर्फ दो जून की रोटी के लिए खुद की खुषयों की बलि दे देते हैं।
वक्त के घूमते पहिये ने इन बहुरूपियों को भी अपनी जद में लिया है। आधुनिकीकरण और इन्टरनेट की फंतासी दुनिया तथा विडियोगेम ने बहुरूपियों के इस स्वांग कला को चैपट कर दिया है। पहले ये जिस गली-कूचे से भगवान का रूप धारण कर निकलते तो लोगों के शीष आस्था पूर्वक झूक जाते थें तथा लोग इन्हे आसानी से अन्न व धन अर्पित कर देते थे जिससे की इनका और इनके परिवार का पेट बड़ी आसानी से पलता था। मगर अब इनकी कला के कद्रदान ही नहीं रहे अगर ये किसी मुहल्ले से गुजर भी जाते हैं तो लोग इन्हे हिकारत भरी नजरों से देखते हैं।
सरों के कुम्हलाये चेहरों पर हंसी बिखेरने वाले ये बहुरूपिये आज खुद गमगीन हैं। खुद गमों का स्याह समन्दर पीकर दूसरों के चेहरों पर हंसी की लाली बिखेरने वाले इन कलाकारों की तल्ख जिन्दगी का आज कोई पुरसेहाल नहीं है। हंसी के इन बाजीगरों के सामने आज दो जून की रोटी का संकट तो है ही साथ में बहुरूपिये जैसे परम्परागत स्वांग कला को मिटने से बचाने का दायित्व भी। आज जिन्दगी से दो तरफा मोर्चा लिये ये बहुरूपिये सरकार और समाज की उपेक्षा झेलते कब तक अपनी कल को जिन्दा रख पाते हैं यह कहना शायद मुनासिब नहीं है। पर इतना जरूर है कि अगर ये इस जंग में हार गये तो भरत की एक प्राचीन सांस्कृतिक विरासत अवस्य मिट जायेगी। जिसके लिए सरकार और समाज की समान रूप से जिम्मेदारी होगी।

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