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बोल की लब आजाद हैं तेरे…?

रैन बसेरा
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कहावत है वक्त बुरा हो तो उंट पर बैठे इंसान को भी कुत्ता काट लेता है। कुछ ऐसा ही हुआ मुंबई की शाहीन व उसकी सहेली रेणु के साथ। शाहीन धाढा ने सोसल साइट फेसबुक पर बाल ठाकरे की शव यात्रा के दौरान मुंबई बन्द पर असहमति भरी टिप्पणी क्या किया व उसकी सहेली रेनु श्रीनिवासन ने लाइक क्या कर दिया कि उन्हे जेल की हवा तक खानी पड़ी। यह गिरफ्तारी जितनी चैंकाने वाली है उससे कहीं ज्यादा शर्मनाक। यह घोर अनुचित कार्यवाही है। इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस घटना से हमें सबक मिलता है कि जो लोग किसी मामले में विपरीत विचार रखते हों अपने जुबान पे ताला लगा लें। महाराष्ट्र पुलिस के इस कार्य की पूरे देश में चतुर्दिक निंदा की जा रही है साथ ही इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला माना जा रहा है। यह घटना हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली को यकायक तानाशाही व निरंकुश शासन के समक्ष खड़ा कर देती है।
इस घटना ने कई सवालों को जेर-ए-बहस ला खड़ा किया है मसलन संविधान की धारा 19 (1) द्वारा प्रदत्त भारत के नागरिकों को मिलने वाला भाषण व अभिव्यक्ति की आजदी की गारांटी बेमानी है? 21वीं सदी के हिन्दुस्तान में सोसल साइट पर भावना व्यक्त करना अपराध है? महिलाओं को रात में गिरफ्तारी पर पाबंदी का कानून छलावा है? क्या आई. टी. एक्ट की धारा 66 (A) में संसोधन की जरूरत है? आखिर किस डगर पर अग्रसर हो रहा है हमारा लोकतंत्र?
हमें उस टिप्पणी पर गौर फरमा लेना चाहिए जो शाहीन ने फेसबुक पर लिखा था जिससे लोगों की भावना आहत हुई। जिसने इतना बड़ा बवेला खड़ा कर दिया। शाहीन ने फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में लिखा था कि ’’रोज हजारों लोग मरते हैं। तब भी दुनियां चलती रहती है। सिर्फ एक नेता के मौत पर, प्राकृतिक मौत पर सभी लोग क्रेजी हो गए। उन्हे ये मालूम होना चाहिए कि हमें ये जबरन करना पड़ रहा है। वो आखिरी वक्त कौन सा था जब किसी ने भी भगत सिंह, आजाद और सुखदेव के लिए 2 मिनट का मौन रखा हो। उन शहीदों के लिए जिनकी वजह से आज हम आजाद भारत में जी रहे हैं। सम्मान कमाया जाता है। दिया नहीं जाता। निश्चित तौर पर दबाव देकर भी सम्मान नहीं लिया जा सकता है। आज मुंबई बन्द है लेकिन डर से सम्मान के लिए नहीं।’ हालांकि शिवसैनिकों द्वारा आपत्ती जताने के फौरन बाद शाहीन ने अपना पोस्ट हटा लिया और बाला साहब ठाकरे की शान में कसीदें भी गढे बावजूद इसके उग्र शिवसैनिकों ने शाहीन के चाचा के हास्पिटल में जमकर तोड़-फोड़ मचाया।
अब जरा विचार कर लिया जाए कि इसमें कौन सी बात किसी की भावना को आहत करने वाली है या दो समुदायों के बीच नफरत डालने वाली है, जिससे दोनों लड़कियों को रातों-रात थाने में तलब किया जाता है? इन सब के बीच पुलिस को वो कानून भी नहीं याद रहा जिसमें महिलाओं की रात में गिरफ्तारी पर रोक है! इसे शिवसैनिकों का आतंक कहें या पुलिस की कमजोरी जिसने कानून व संविधान को ताक पर रखकर अभिव्यक्ति की आजादी का चीरहरण कर दिया। इन सब के बीच केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल का वो बयान अजीब लगता है जिसमें उन्होने यह कहा कि पुलिस को आई. टी. एक्ट की धारा 66 (A) की समझ नहीं है। यहां एक सवाल और खड़ा होता है कि उस कानून की क्या दरकार जिसकी समझ पुलिस को नहीं जिसका वो इस्तेमाल करती है। शायद कानून की समझ न रहने की वजह से ही महाराष्ट्र पुलिस को कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के मामले में मुहं की खानी पडी थी। इस सम्बंध में वरिष्ठ साइबर ला एक्सपर्ट पवन दुग्गल का माना है कि आई. टी. एक्ट की धारा 66 (A) की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए।
यहां एक सवाल पैदा होता है कि अगर टिप्पणी इतनी ही खराब है तो याद कीजिए बाला साहब व उनके भतीजे उद्धव ठाकरे की वो जहरीली जुबान जो सैकड़ों बार उत्तर भारतीयों के खिलाफ आग उगलती रही है। जिसकी वजह से मुंबई में काम करने वाले उत्तर भारतीयों को कई बार पीटा गया और उन्हे कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। ऐसे में तो इन दोनों को सैकड़ों बार जेल जानी चाहिए थी? भाजपा नेता रामजेठ मलानी ने भी अभी हाल ही में हिन्दू समुदाय के आराध्य भगवान श्री राम पर टिप्पणी किया था, कहां थें शिवसैनिक व पुलिस के आला हुक्मरान? अगर ऐसा ही है तो इन सब के उपर कार्यवाही होनी चाहिए। इन लडकियों की गिरफ्तारी ने यह साबित कर दिया है कि पुलिस किस तरह अपने अधिकारों का मनमाना इस्तेमाल करती है और किस प्रकार कुछ कानून उसकी मनमानी में मददगार साबित होते हैं। यह तो समझ में आता है कि बाल ठाकरे के समर्थक यानि षिवसैनिक अपने नेता के निधन से दुखी होंगे और वे इस बाबत किसी भी तरह के विपरीत विचारों को सुनने-पढ़ने के लिए तैयार नहीं होंगे मगर उन्हे कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत हरगिज नहीं दी जा सकती।
इस घटना की निंदा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव लिखते हैं कि ’’पालघर की कन्याओं का माफीनामा समूचे मराठी समाज, कांग्रेस-राकंपा, भाजपा व राज्य सरकार के लिए कलंक है। इनकी कायरता का उद्घोष है।’ देश के लोग यह जानना चाहते हैं कि क्या देश में वास्तव में ऐसा कोई कानून है जो पुलिस को वैसे अधिकार देती है जैसे अधिकारों का प्रयोग मुंबई पुलिस ने किया? यदि ऐसा कानून है तो उसे लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के अनुकूल नहीं कहा जा सकता है। अफसोस तो होता है कांग्रेस की लाचारी पर जिसकी सरकार केन्द्र व राज्य दोनों जगहों पर है और जो हमेशा अभिव्यक्ति की आजादी की वकालत करती रही है बावजूद इसके वह इन लडकियों की गिरफ्तारी पर मौन दिख रही है। अगर असल में वह अभिव्यक्ति की आजादी की पक्षधर है तो उसे आगे आना होगा और दोषी पुलिस कर्मियों के खिलाफ कार्यवाही करनी होगी। तब जाकर कपिल सिब्बल का वह बयान सार्थक हो जिसमें उन्होने कहा कि ’’हम किसी के बोलने का हक नहीं छीन सकते।’

एम. अफसर खां सागर

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