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पस्त पड़ती पतंगों की परवाज

रैन बसेरा
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सुई…. ई… ई…! आई नीचे! हुर्र…. चढ़ जा उपर। खींच मंझा खींच। नक्की कटे न पाये। ढील और ढील। थोड़ा बायें। एकदम दायें लाओ। तू ने उसकी पतंग काट ही दी। जा मेरी तितली जा। आसमान से भी तू पार जा।
ये संवाद पतंगबाजों क बीच के हैं। जो कभी शिव की नगरी काशी के फक्कड़ों के बीच खूब सुनाई देती थी। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े सभी मगन रहते थे। एक से एक पतंग और उससे बड़े पतंगबाज। छत हो, खुला मैदान या गंगा पार रेती। हर जगह इनकी टोली मस्ती करती नजर आती। और हां… देखने वालों की बड़ी जमात लुत्फअंदोजी में मशगूल रहा करती थी।
बदलते जमाने और शौक की भेंट चढ़ गई पतंगबाजी। न वह उत्साह रहा, न अब वह जूनून। न ही अब बाजी पर लड़ाई जाती हैं पतंगे। छतों पर वो कटा…. वो कटा की आवाज भी अब नहीं सुनाई देती और न ही गली, मुहल्लों में कटी पतंग लूटने वाले बच्चों की फौज दिखाती है। एक वक्त था कि जमकर पतंगबाजी हुआ करती थी। हजार-हजार रूपये पेंच की बाजी पर पतंगें लड़ाई जाती थीं। इसके लिए पतंगबाज रात-रात भर जागकर मंझा तैयार करते थे। और फिर क्या… सारा दिन पतंग लड़ाने में ही बीत जाया करता था। इसके अलावा छतें भी पतंगबाजों से गुलजार रहतीं थीं। पतंग तो भगवान राम भी उड़ाया करतें थें, ऐसा माना जाता है।
आखिर क्या वजह हैं कि पतंगबाजी जो कभी नवाबों का शौक हुआ करती थी तथा बच्चे, जवानों के साथ बूढ़े भी हाथ आजमाते थें, आज बजूद खोती जा रही है? बनारस के मशहूर पतंग बनाने व बेचने वाले छोटन मियां बताते हैं कि अब बहुत लोग पतंग नहीं खरीदते। बड़े इसे तुच्छ समझते हैं तो बच्चे अपना धन सीडी, टीवी व सीनेमा पर खर्च करना ज्यादा पसंद करते हैं। पतंगबाजी के लिए खुले मैदान भी तो नहीं रहे अब। एक वक्त था कि छोटन मियां के बनाये पतंग, उनके कुशल कारीगरी व खूबशूरती के लिए जाने जाते थे, मगर आज वे खुद पतंग की कटी डोर के समान लाचार हैं। अब लोगों में पतंग के प्रति उतना उत्साह भी नहीं रहा। गुजरे दिनों को याद करते हुए छोटन मियां बताते हैं कि एक खास सीजन हुआ करता था पतंगबाजी का, पतंग उड़ाने वाले शौकीन लोग उनकी दुकान पर उमड़ जाते और दिन भर रंग-बिरंगी पतंगों व मंझों के बीच मैं उलझा रहता, आमदनी भी खूब होती। मगर अब तो हर आदमी जिंदगी की भाग दौड़ में इतना तेज रफतार अख्तियार कर लिया है कि पतंग जैसी नाजुक चीज उसने पैरों से कुचलकर दम तोड रही है। अब वो जमाना गया, न ही वे शौकीन रहे और न ही वो खरीदार। बस दो पैसा मिल जा रहा है। शौक है, छोड़े नहीं छूटती… बस लगा हूं।
मनोरंजन के नित नये बदलते संसाधनों ने पतंगबाजी के इस कला को गुजरे जमाने की शौक तक ही महदूद की दिया है। एक सुनहरा वक्त था जब पतंग आम लोगों के जीवन में जरूरियात की चीजें में शरीक था, कमोबेष बच्चों में तो जरूर। पतंग और इसके परवाज पर फिल्म, गाने और न जाने कितने साहित्यक रचनाएं रची गईं। प्राचीन भारतीय संस्कृति के वाहक के रूप में पतंग त्यौहार की शान है। वक्त का बदलता मिजाज कहें या आधुनिक होता समाज, आज थम सी गयी है पतंग की परवाज। अब जो पतंग उड़ाते हैं वो भी किसी खास मौकों व त्यौहार पर। बस घुटती सांसों की माफिक, न तो वो परवाज और न ही वो रफतार रहा। हां, इसके कलेवर में बदलाव जरूर आया है। पडोसी मुल्क चीन ने हमारे हाथों से हमारी पतंगें भी छीन ली है। छोटन मियां, लालू काका, रमजान चाचा की तितली, चम्पई, फर्राटा, आसमानी अब नहीं मिलता। चीन की तितली, उल्लू और पैराशूट जो उनपर हाबी हो गया इससे जुड़े पेशेवर कलाकारों की आमदनी भी समाप्ती के कगार पर है। विदेशी चमकदार के आगे देशी लोगों को कहां भा रहा है। वजूद को बचा पाने की जद्दो-जेहद में ये कलाकार पतंगे के मंझे की फलक से कट कर हलाक होते नजर आ रहे हैं।
आखिर इंटरनेट, वीडियोगेम, सी.डी., टी.वी. के ज्वर में क्या क्या तबाह होगा? मनोरंजन के परम्परागत साधन, प्राचीन संस्कृति, परम्परा या भारतीय समाज? रेव पार्टीयां ही मनोरंजन के असल साधन हैं या शराब से सराबोर युवाओं की महफिलें? क्या बच्चों की आखों पर चढ़े मोटे चश्में ही इनकी देन है या टूटती परम्परागत सामाजिक ढ़ांचा। समाज में खुलेआम होता नंगा नाच ही इन मनोरंजक साधनों की देन है! हम कब चेतेंगे… मिट जाने के बाद। आखिर क्यों पस्त पड़ रही है पतंगों की परवाज।

एम.अफसर खां सागर

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