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साम्प्रदायिकता के दावानल को रोकने का वक़्त

रैन बसेरा
रैन बसेरा
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फक्र से कहो कि मैं हिन्दू हूं, किसी कोने से एक मध्म सी आवाज और नुमाया होगी कि मैं मुसलमान हूं। हमें तो बस लड़ना है वो लड़ाई चाहे राम के नाम पर हो या रहमान के नाम पर। तुम हिन्दुस्तान में बाबरी मस्जिद तोड़ोगे वो बामयान में बुद्ध की प्रतिमा। जरा सोचो आखिर टूटना तो इंसान को ही है। इस पर भी तुम्हारा तर्क होगा कि नहीं, यहां मुसलमान टूटा तो वहां हिन्दू। तोड़ने वालों मुझे भी तोड़ना बहुत पसंद है अगर तुम साम्प्रदायिकता के दावानल को तोड़ सको। चन्द महीने पहले मुजफ्फरनगर में क्या हुआ? कुछ हिन्दूओं के और कुछ मुसलमानों के घर टूटे, आत्मा टूटीं। ऐसे तो पूरे मुल्क में कुछ ना कुछ हरदम टूट रहा है। फिर क्या हुआ, आखिर क्यों इतना हो हल्ला मचा हुआ है। जरा किसी ने उन टूटने वालों से पूछा कि किसने आखिर क्यों तुम्हे और तुम्हारे जीने के सलीके को तोड़ दिया?
साठ साल से ज्यादा का अरसा हो चुका है हमें अंग्रेजों के गुलामी के जंजीरों को तोड़े हुए मगर क्या हासिल हुआ, आजाद हुए जब आपस में एक-दूसरे को हम तोड़ने पर आमादा हैं। अगर कुछ तोड़ना है तो मुसलमान तुम मस्जिदों को और हिन्दू तुम मन्दिरों को तोड़ो! आखिर ऐसे धर्म की क्या जरूरत है जो हमें आपस में लड़ना सिखाता हो। किस राम ने और किस रहीम ने धर्म की कौन सी किताब में कहां लिखा है कि हम आपसी भाईचारा को भुला कर एक-दूसरे को कत्ल करें?
मुजफ्फरनगर पच्छिमी उत्तर प्रदेश का वह इलाका है जहां बाबरी विध्वंश के वक्त भी वो नहीं हुआ जो चार महीने पहले हो गया। दंगा के दावानल में सब लुट गया। अमन, चैन, भाईचारा अब बेमानी सी लगती है। धर्म जिसे लोग जीवन का पद्धति माने हैं, वो भी इन्हे लड़ने से नहीं रोक सका। यहां एक सवाल जेहन में पैदा होना लाजमी है कि जब दंगों को धर्म के नाम भड़गया गया तो वैसे धर्म की हमें क्या जरूरत है जो अनदेखे के लिए यहां मुराद राम व रहीम से है, जिसे हमे कभी नहीं देख उसके नाम पर हमे लड़ाया जा रहा है और जिसे हम रोज देखते हैं, मिलते हैं। अपना दुख-दर्द बांटते हैं, उसी को मारने पर आमादा हैं। जरा सोचिए कि हमें राम व रहीम ने क्या दिया है? कुछ नीतियां, जिन्दगी जीने का सलीका, जिन्हे हम शायद कभी अमल में ही नहीं ला सके। हमें मन्दिर-मस्ज्दि का तो खूब ख्याल रहा मगर आपसी सद्भाव को भूल गये। शायद अब वक़्त नहीं बचा हिन्दु-मुसलमान के नाम पर लड़ने का। मन्दिर-मस्जिद की भव्य ईमारत के बुनियाद का चक्कर छोड़ कर, उसकी नीतियों, सिद्धान्तों को अपनाने का समय है।
साम्प्रदायिकता के बन्द दरवाजे, खिड़कियां व रोशनदान को खोलकर, सद्भाव व भाईचारे की रोशनी को समाज व मुल्क में लाने की जरूरत है। सद्भाव की रोशनी से कुछ लोगों की आखें जरूर चौंधिया जायेंगी और जिन्होने अंधेर नगरी का साम्राज्य कायम कर रखा हो शायद उन्हे अब भी अंधेरा ही पसंन्द हो। वो जरूर कहेंगे कि हमें धर्म, कट्टरता, मन्दिर-मस्जिद ही पसंद है। मगर वक्त की आवाज को सुनना बेहद जरूरी है, सामाजिक समरसता व सद्भाव को कायम करने की जरूरत है। वर्ना हमसे तो अच्छा वो जानवर हैं, जिनमें धर्म का भेद-भाव नहीं। ना तो वे हिन्दु हैं ना मुसलमान। न उनके पास मन्दिर है और ना ही मस्जिद। आपने कबूतर को देखा है, कभी वो मन्दिर पर तो कभी मस्जिद के गुम्बद पर बैठा रहता है। शायद व धर्म की चारदीवारी से उपर है। जरा सोचिए, कितना अच्छा होता कि हम जानवर ही होते! कम से कम हम धर्म-मजहब के नाम पर तो नही लड़ते। कितना अच्छा होता अगर ये मन्दिर ना होते, ये मस्जिद ना होते! फिर भी कुछ न कुछ जरूर टूटता तब शायद इंसान न टूटते। इंसानों का गुरूर, घमण्ड टूटता। आज जरूरत धर्म, जाति, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर लड़ने का नहीं है। वक्त है गुरबत, बेकारी व भ्रष्टाचार से लड़ने का। वक्त है साम्प्रदायिकता के फैलते दावानल को रोकने का।

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