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शिक्षा किसी भी समाज की तरक्की और खुशहाली के लिए बहुत जरूरी है। सभ्य समाज का निमार्ण शिक्षा के बिना मुम्किन नहीं है। तमाम कवायदों के बावजूद आजादी के 68 साल का लम्बा वक्त बीत जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश में सरकारी प्रथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूलों में न तो शिक्षा का स्तर सुधर पा रहा है और न ही इनमें विद्यार्थियों को बुनियादी सुविधाएं मिल पा रही हैं। अगर कुछ सुधरा है तो प्रथमिक स्कूलों में बच्चों के हाथ मिड-डे-मील की थाली जरूर लगी है। प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा के सुधार के लिए जब तलक कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जाता, तब तक हालात नहीं बदलंेगे। आबादी के दृष्टिकोण से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के प्रथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूलों की दुर्दशा सुधारने के लिए अब अदालत को आगे आना पड़ा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने एक अहम फैसले में कहा है कि सरकार नेता-अफसर और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे को सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य करे और जो ऐसा न करे, उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाए। इस काम में जरा सी भी देरी न हो। राज्य सरकार इस काम को छह महीने के भीतर पूरा करे। सरकार कोशिश करे कि यह व्यवस्था अगले शिक्षा सत्र से ही लागू हो जाए। इस कार्य को पूरा करने के बाद सरकार, अदालत को कार्यवाही की सम्पूर्ण रिपोर्ट पेश करे।
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जब तक जनप्रतिनिधियों, अफसरों और जजों के बच्चे प्राइमरी स्कूलों में अनिवार्य रूप से नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। अदालत यहीं नहीं रुक गई, बल्कि उसने एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा कि जिन नौकरशाहों और नेताओं के बच्चे कांवेंट स्कूलों में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटा जाए साथ ही ऐसे लोगों का इंक्रीमेंट और प्रमोशन भी कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था की जाए। यानी अदालत का साफ-साफ कहना था कि जब तक इन लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, वहां के हालात नहीं सुधरेंगे। सरकारी स्कूलों के हालात सुधारने के लिए इस तरह के सख्त कदम की दरकार है। अगर अब भी यह कदम नहीं उठाए गए, तो प्राथमिक शिक्षा का पूरा ढांचा चरमरा जाएगा और इसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ सरकार होगी।
मुल्क के ज्यादातर प्राथमिक स्कूलों के हाल बुरे हैं। इन स्कूलों की मुख्य समस्या विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक का न होना है। यदि शिक्षक हैं भी, तो वे काबिल नहीं। शिक्षकों की तो बात ही छोड़ दीजिए, ज्यादातर स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी न के बराबर हैं। कहीं स्कूल की बिल्डिंग नहीं है। कहीं बिल्डिंग है, तो शिक्षक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की बात करें तो प्रदेश के एक लाख 40 हजार प्रथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूलों में हाल-फिलहाल शिक्षकों के दो लाख सत्तर हजार पद खाली पड़े हैं। जाहिर है कि जब स्कूलों में शिक्षक ही नहीं हैं, तो पढ़ाई कैसे होगी? शिक्षकों के अलावा इन स्कूलों में पीने का पानी, शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। यह हालात तब है, जब पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है।
एक तरफ देश में सरकारी स्कूलों का ऐसा ढांचा है, जहां बुनियादी सुविधाएं और अच्छे शिक्षक नहीं है तो दूसरी ओर कारपोरेट, व्यापारियों एवं मिशनरियों द्वारा बड़े पैमाने पर संचालित ऐसे निजी स्कूलों का जाल फैला हुआ है, जहां विद्यार्थियों को सारी सुविधाएं और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है। इन स्कूलों में अधिकारी वर्ग, उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। चूंकि इन स्कूलों में दाखिला और फीस आम आदमी के बूते से बाहर है, लिहाजा निम्न मध्य वर्ग व आर्थिक रूप से सामान्य स्थिति वाले लोगों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही बचते हैं। देश की एक बड़ी आबादी सरकारी स्कलों के ही आसरे है। फिर वे चाहे कैसे हों। इन स्कूलों में न तो योग्य अध्यापक हैं और न ही मूलभूत सुविधाएं। बड़े अफसर और वे सरकारी कर्मचारी जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर है, वे अपने बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। अधिकारियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने की अनिवार्यता न होने से ही सरकारी स्कूलों की दुर्दशा हुई है। जब इन अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते, तो उनका इन स्कूलों से कोई सीधा लगाव भी नहीं होता। वे इन स्कूलों की तरफ ध्यान नहीं देते। सरकारी कागजांे पर तो इन स्कूलों में सारी सुविधाएं मौजूद होती हैं, लेकिन यथार्थ में कुछ नहीं होता। जब उनके खुद के बच्चे यहां होंगे, तभी वह इन स्कूलों की मूलभूत आवश्यकताओं और शिक्षा गुणवत्ता सुधार की ओर ध्यान देंगे। सरकारी, अर्ध सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों, न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन, मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से जब सरकारी स्कूलों में शिक्षा लेंगे, तो निश्चित तौर पर पूरी शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव होगा। वे जिम्मेदार अफसर जो अब तक इन स्कूलों की बुनियादी जरूरतों से उदासीन थे, उन्हें पूरा करने के लिए प्रयासरत होंगे। अपनी ओर से वे पूरी कोशिश करेंगे कि इन स्कूलों में कोई कमी न हो।
अब सवाल यह उठता है कि सरकारी प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक स्कूलों में जब तक शिक्षा का स्तर बेहतर नहीं होगा तब तक ज्यादातर आबादी को बेहतर शिक्षा नहीं मिल पाएगी, ऐसे हालत में सबके से शिक्षा का अधिकार का कानून का मकसद कहां तक सफल हो पाएग? महज मिड-डे-मील खाकर इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अपने मूल मकसद में कहां तक कामयाब होगे? सवाल यह भी है कि जब तक शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं हो तक तक दिन ब दिन मुल्क में बेरोजगारों की फौज तैयार होती रहेगी। हाल के दिनों उत्तर प्रदेश में तकरीबन चार सौ चपरासी पदो ंके भर्ती के लिए 23 लाख लोगों ने आवेदन किया जिसमें पीएचडी सहित बीटेक, एम.ए. और स्नातक आवेदकों की काफी संख्या थी। अगर देखा जाए तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी भी इसके लिए जरूर जिम्मेदार है? प्रथमिक शिक्षा सम्पूर्ण शिक्षा की रीढ़ है जो सरकारी प्रथमिक विद्यालयों में काफी कमजारे होती नजर आ रही है। जिसका नतीजा है कि न्यायालय को हस्तक्षेप कराना पड़ा है। यहां लाख टके का सवाल है कि महज कानून के डर से ही प्रथमिक शिक्षा में सुधार आएगी वरन नैतिकता का कोई पैमाना भी है? जिस सरकारी प्रथमिक विद्यायलयों के हाल महज मिड-डे-मील पर सिमट गया हो, अगर वहां बड़े सियासदांनों और हुक्मरानों के बच्चे पढ़तें हैं तो ही सुधार आएगा या सरकार को चाहिए कि सब पढ़ें और सब बढ़े के नारे को सफल बनाने के लिए प्रथमिक शिक्षा में व्यपाक सुधार के लिए बड़ा कदम उठाये।
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