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गिद्ध-विलुप्ती के करीब प्राकृतिक सफाईकर्मी

रैन बसेरा
रैन बसेरा
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अभी कुछ ज्यादा अरसा भी नहीं गुजरा है गिद्ध बड़ी आसानी से दिखाई देते थें मगर आज हालात काफी बदल गये हैं, अब ढ़ूढ़ने से भी नहीं दिखते। मेरे घर के पीछे ही खरगस्सी तालाब के पास ताड़ के दर्जन भर पेड़ कतारबद्ध खड़े हैं। गवाह हैं ताड़ के वे पेड़ जो कभी गिद्धों का आशियाना हुआ करते थें। अक्सर शाम के वक्त डरावनी आवाजें ताड़ के पेड़ों से आती मानों कोलाहल सा मच जाये। मालूम हो जैसे रनवे पर जहाज उतर रहा हो। मगर अब वो दिन नहीं रहे। आज एक भी गिद्ध नहीं बचे। लगभग ऐसे ही हालात अन्य जगहों के भी हैं!
गिद्ध प्रकृति की सुन्दर रचना है, मानव का मित्र और पर्यावरण का सबसे बड़ा हितैषी साथ ही कुदरती सफाईकर्मी भी। मगर आज इनपर संकट का बादल मंडरा रहे हैं। हालात अगर इसी तरह के रहें तो अनकरीब गिद्ध विलुप्त हो जायेंगे। एक वक्त था कि मुल्क में गिद्ध भारी संख्या में पाये जाते थे। सन् 1990 में गिद्धों की संख्या चार करोड़ के आसपास थी। मगर आज यह घटकर तकरीबन दस हजार रह गयी है। सबसे दुःखद पहलू यह है कि मुल्क में बचे गिद्धों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। वैसे तो गिद्ध मुल्कभर में पाये जाते हैं मगर उत्तर भारत में इनकी संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। भारत में व्हाइट, बैक्ड, ग्रिफ, यूरेशियन और स्लैंडर प्रजाति के गिद्ध पाये जाते हैं। गिद्धों का प्रमुख काम परिस्थितकी संतुलन को बनाये रखना है। मुल्क के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में मृत पशुओं को खुले मैदान में छोड़ दिया जाता है। जहां गिद्धों का झुण्ड कुछ ही देर में उसका भक्षण करके मैदान साफ कर देते हैं। मृत जानवरों का मांस ही गिद्धों का प्रमुख भोजन है।
पशु वैज्ञानिकों का मानना है कि गिद्ध हजार तरह के भयंकर बीमारीयों से बचाव में अहम भूमिका निभाते हैं। वैसे तो गिद्ध मानव के साथी हैं मगर मानवीय लापरवाही की वजह से इनके अस्तित्व पर संकट मण्डराने लगा है। आखिर क्या वजह है कि मुल्क में अचानक गिद्धों की संख्या इतनी कम हो गई? अगर गौर फरमाया जाए तो गिद्धों के खात्मे के लिए अनेक वजह हैं मगर पशुओं के इलाज में डाइक्लोफिनाक का इस्तेमाल प्रमुख कारण है। एक अध्ययन के मुताबिक डाइक्लोफिनाक दर्दनाशक दवा है जोकि पशुओं के इलाज में काफी कारगर है। अगर इलाज के दौरान पशुओं की मौत हो जाती है तो उसे गिद्ध खाते हैं जिससे गिद्धों के शरीर में डाइक्लोफिनाक पहुंच जाता है। डाइक्लोफिनाक की वजह से गिद्धों के शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ जाती है, गिद्ध इसे मूत्र के द्वारा शरीर से बाहर नहीं निकाल पाते जिससे उनकी किडनी खराब हो जाी है जो उनके मौत की जिम्मेदार बनती है।
वैश्विक स्तर पर गिद्धों की घटी संख्या पर चिंता जताई जा रही है। कई मुल्कों ने तो डाइक्लोफिनाक पर रोक लगा रखा है। भारत में गिद्धों की घटती संख्या के लिए डाइक्लोफिनाक को जिम्मेदार माना जा रहा है। भारत सरकार ने भी डाइक्लोफिनाक का पशुओं पर इस्तेमाल प्रतिबंधित कर रखा है। गिद्धों की घटती संख्या पर सरकार भी काफी चिंतित है इसलिए इनके संरक्षण व प्रजनन के लिए कई योजनाएं चलायी जा रही हैं। जिसमें विदेषों से भी मद्द मिल रहा है। ब्रिटिश संस्था रायल सोसाइटी आफ बर्ड प्रोटेक्शन ने इंडो-नेपाल बार्डर को ‘‘डाइक्लोफिनाक फ्री जोन ’’ बनाने का बीड़ा उठाया है। जिसमें भारत व नेपाल की सरकारें सहयोग करेंगी। इस योजना के तहत दो किलोमीटर तक क्षेत्र को 2016 तक डाइक्लोफिनाक मुक्त करने का प्लान है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में पांच जोन बनाये गये हैं, जिसमें पीलीभीत-दुधवा क्षेत्र, बहराईच का कतरनिया घाट प्रभाग, बलरामपुर का सोहेलवा और महाराजगंज जिले का सोहागी बरवा क्षेत्र शामिल है।
तेजी से विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाने के लिए सरकार देश में तीन गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र चला रही है, जो पिंजौर हरियाणा, राजाभातखावा पश्चिम बंगाल व रानी असम में स्थापित हैं। मगर ये सभी योजनाएं गिद्धों को बचाने में नाकाफी साबित हो रही हैं। जंगल के इस सफाईकर्मी की घटती संख्या से वन्य जीवों समेत मानव की जान पर खतरा मंडराने लगा है, जिससे वाइल्ड लाइफ प्रेमी काफी चिंतित हैं। मुल्क के शहरी व ग्रामीण इलाकों में अगर गिद्धों की चहल-पहल देखनी है तो इनके संरक्षण के लिए हमें आगे आना होगा। नहीं तो मानव का सच्चा हितैषी और प्राकृतिक सफाईकर्मी विलुप्त हो जाएगा और हमें तरह-तरह की भयंकर बीमारियों से दो चार होना पड़े सकता है।

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